Friday, October 16, 2020

कोरोना जा नहीं रहा, इसलिए टिकी है टीकों पर सबकी नज़र

 

विनोद वार्ष्णेय

विश्व में अब हर रोज जितने नए कोविड केस सामने आ रहे हैं, वे अब तक के सर्वाधिक हैं। भारत में जरूर प्रकोप कुछ कम होता दिखाई दे रहा है लेकिन ठण्ड के मौसम,  त्योहारों और चुनावों को देखते हुए अगले कुछ महीनों में क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। 

राहत की बात यह है कि बचाव के लिए दुनिया भर में कोविड के 179 टीकों पर काम चल रहा है। इनमें से 144 टीकों का परीक्षण चूहों, खरगोश आदि ऐसे जानवरों पर चल रहा है, जिनकी रोगरोधी क्षमता मानव सरीखी है या उनमें मानव जीन डालकर वैसी बना दी गई है। 35 टीके मानव परीक्षण के दौर में हैं। कुछ टीके दुर्बलीकृत कोरोनावायरस के आधार पर बनाए गए  हैं तो कुछ में वायरस के केवल एक हिस्से, जैसे कि प्रोटीन, का इस्तेमाल किया गया है। एक अन्य किस्म के टीकों में कोरोनोवायरस की सतह पर मौजूद संक्रामक प्रोटीन को किसी अन्य ऐसे वायरस में स्थानांतरित किया गया है जो मानव के लिए निरापद हैं। तो कुछ टीकों में कोरोनावायरस की आनुवंशिक सामग्री के अवयवों का इस्तेमाल किया गया है। सबसे अधिक 77 टीके, वायरस की संक्रामक प्रोटीन के आधार पर बनाए गए हैं, 44 ऐसे हैं जो अन्य हानिरहित वायरसों के आधार पर बने हैं।  23 टीके सार्स-कोव-2 के आरएनए पर आधारित हैं। 18 टीके दुर्बलीकृत वायरस पर आधारित हैं और 16 कोरोना वायरस के प्लाज्मिड के आधार पर बनाए गए हैं। 

 विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक अनुसन्धान संस्थाओं के अलावा, दवा निर्माता और बायोटेक कंपनियां जोरशोर से टीकों के विकास में लगी हैं। विभिन्न सरकारों ने भी इसके लिए धन की व्यवस्था की है। मसलन अमेरिका में ‘ऑपरेशन वार्प स्पीड के जरिए 10 अरब डॉलर की राशि अनुसन्धान के लिए दी जा रही है। वहां तीसरे चरण के चार मानव परीक्षण शुरू हो चुके हैं, तो रूस, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और भारत भी अपने-अपने टीकों के परीक्षण कर रहे हैं। कम-से-कम 12 टीके मानव परीक्षण के तीसरे (अंतिम) दौर में चल रहे हैं। 

रूस और चीन को है बड़ी जल्दी 

पर विचित्र बात है कि चीन ने तीसरे चरण के परीक्षण के नतीजों का इन्तजार किए बिना ही दसियों हज़ार चीनी लोगों को टीके लगा दिए। सबसे पहले टीके सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों, सरकारी अधिकारियों और टीका बनाने वाली कंपनियों के कर्मचारियों को लगाए गए।  फिर अध्यापकों, सुपर मार्किट के कर्मचारियों और जोखिम वाली जगहों की यात्रा करने वालों को दिए गए। सरकार की ओर से दावा किया गया है कि ये टीके आपात इस्तेमाल के प्रावधानों के तहत लगाए गए हैं और इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सिद्धांतों का पालन किया गया है। चीन के फिलहाल चार टीके तीसरे चरण के मानव परीक्षण के दौर से गुजर रहे हैं। ज्यादातर परीक्षण अन्य देशों में चल रहे हैं क्योंकि चीन में संक्रमण थम चुका है और वहां परीक्षण संभव नहीं।

रूस ने भी बिना तीसरे चरण का मानव-परीक्षण किए अपने एक टीके 'स्पुतनिक-V' को पंजीकृत करा लिया। इसके विपरीत पश्चिमी देशों में विकसित किए जा रहे टीकों की वास्तविक बचाव क्षमता और उनके पूरी तरह सुरक्षित होने के सबूत मांगे जा रहे हैं और इस मुहिम के जवाब में अनेक टीका निर्माता कंपनियों को वायदा करना पड़ा है कि वे अपने टीके को पूरी तरह विज्ञान की कसौटी पर खरा सुनिश्चित करने के बाद ही लोगों के  इस्तेमाल के लिए जारी करेंगे।  याद रहे टीका कैसा है, यह जांचने के लिए ‘प्रोटोकॉल कंपनियां खुद तय करती हैं।

विशेषज्ञों और टीका-विकास में पारदर्शिता और नैतिकता के लिए आवाज उठाने वाले संगठनों की ओर से शोर अधिक होने पर सितम्बर के तीसरे सप्ताह में कंपनियों ने सार्वजनिक तौर पर अपने प्रोटोकॉल उजागर किए जिनके अनुसार अगर टीका हल्के लक्षण वाले मरीजों का ही जोखिम कम करता पाया जाएगा तो भी उस टीके को कामयाब मान लिया जाएगा चाहे मध्यम या गंभीर रोगियों को उससे कोई सुरक्षा न मिलती हो।

तुलना फ्लू के टीके से की जा रही है। बताया जा रहा है कि फ्लू का टीका भी हलके फ्लू पर ही असर करता है और इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि वह उम्र दराज लोगों को भी सुरक्षा प्रदान करता है। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अब तक की जानकारी के अनुसार विकसित किए जा रहे कोविड-19 के टीकों की प्रभावशीलता फ्लू के टीकों की भाँति ही 50 प्रतिशत होगी। कोविड-19 के टीके के परीक्षण फिलहाल बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों पर नहीं किए जा रहे। केवल जॉनसन एंड जॉनसन ने ही पिछले हफ्ते  उम्रदराज लोगों को अपने परीक्षण में शामिल किया है।

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्रा-जेनेका की साझेदारी के तहत विकसित ‘AZD1222’ से उम्मीद बन रही थी कि शायद सबसे पहले यही टीका बाजार में आएगा। इसके तीसरे चरण के मानव-परीक्षण के लिए अमेरिका में 30,000 वालंटियर भर्ती किए गए थे और ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर तथा ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका में छोटे स्तर पर परीक्षण चल रहे थे। लेकिन उसे अचानक अपने तीसरे चरण का अपना परीक्षण कुछ समय के लिए रोकना पड़ा क्योंकि टीके के बाद एक महिला वालंटियर गंभीर रूप से स्नायुविक समस्या से ग्रस्त हो गई।

टीके की प्रभावशीलता और उसके सुरक्षित होने की गारंटी को लेकर विशेषज्ञों में चलती आ रही बहस का नतीजा यह हुआ कि ‘प्यू रिसर्च सेंटर के सितंबर के पहले सप्ताह में किए गए एक सर्वे ने बताया कि 50 प्रतिशत अमरीकी ही टीका लगवाने को तैयार हैं जबकि चार महीने पहले इच्छुक लोगों की संख्या 73 प्रतिशत थी। अमेरिका में ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जो कहते हैं  मुफ्त में मिले तब भी हम पहली पीढ़ी का टीका तो नहीं लगवाएंगे।  

कपनियों को करना पड़ा लिखित वायदा 

बहरहाल, कंपनियों और नियामक संस्थाओं की तरफ से टीके के प्रति अविश्वास की भावना खत्म करने के लिए कदम उठाए जाने शुरू हो गए हैं। चार बड़ी कंपनियों फ़ाइज़र, मॉडर्ना, एस्ट्रा-जेनेका और जॉनसन एन्ड जॉनसन ने सार्वजनिक तौर पर एक वचनपत्र पर हस्ताक्षर किए हैं कि वे उच्च नैतिक मानदंडों और ठोस वैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन करेंगे और तब तक नियामक की मंजूरी नहीं मांगेंगे जब तक कि दसियों हज़ार लोगों में परीक्षण से यह सिद्ध नहीं हो जाएगा कि उनका टीका सचमुच प्रभावी और सुरक्षित है। बाद में ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन, मर्क, नोवावैक्स, बायो-एन टेक और सनोफी ने भी उस वचन पत्र पर हस्ताक्षर किए। भारत में भी कई कंपनियां टीके के विकास में लगी हैं। उनमें से भारत बायोटेक और जाइडस कैडिला इन दिनों दूसरे चरण के मानव परीक्षण कर रहीं हैं। इन्हें भी इस वचन पत्र पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। वे ऐसा क्यों नहीं करतीं ? 

एक साहसिक कदम के तौर पर, अमेरिका के फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी राजनीतिक दबाव में न आकर एलान किया है  कि टीके के आपात इस्तेमाल के लिए भी मंजूरी तब दी जाएगी जब टीका लगवाने वालों के दो महीने तक सुरक्षित रहने के दावे की जांच हो लेगी। उम्मीद की जा रही थी मानव परीक्षण के तीसरे चरण में चल रहे कई टीकों में से कम-से-कम मॉडर्ना का टीका अमेरिका में 3 नवम्बर को होने वाले चुनाव से पहले आ जाएगा। लेकिन उक्त ऐलान के बाद अब यह संभावना खत्म हो गई है।

असली तो होता है 'मानव चुनौती परीक्षण' 

कोई टीका कितना सुरक्षित है और कितना प्रभावी, इसकी जांच का आखिरी तरीका है ह्यूमन चैलेंज ट्रायल (मानव चुनौती परीक्षण) हालांकि इसको लेकर कई विवाद हैं। 

सबसे पहले 24 सितम्बर को इंग्लैंड ने एलान किया कि कोविड-19 के टीके का ‘मानव चुनौती परीक्षण किया जाएगा।  इस परीक्षण में वालंटियर को पहले टीका लगाया जाएगा और इसके एक महीने के बाद उसे सार्स-कोव-2 वायरस से संक्रमित कर यह देखा जाएगा कि टीके ने सचमुच में उसे कितना बचाया।जाहिर है कि जो टीका मानव चुनौती परीक्षण में खरा उतरेगा, साख उसी टीके की बनेगी और सभी लोग उसे ही लगवाना चाहेंगे। 

यह परीक्षण जनवरी में शुरू किया जाएगा और इसके लिए धन की व्यवस्था इंग्लैंड की सरकार करेगी। अमेरिका के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) 'वनडे सूनर' के जरिए 2,000 वालंटियर इस जोखिम भरे परीक्षण के लिए अपना नाम दर्ज करा चुके हैंविश्व स्वास्थ्य संगठन ने नैतिक मानदंड तय किए हुए हैं कि वॉलंटियरों को 'मानव चुनौती परीक्षण' से जुड़े जोखिम के बारे में सही जानकारी देने के बाद ही उसमें भाग लेने के लिए उनकी स्वीकृति ली जाए।

आम तौर पर तीसरे दौर का मानव परीक्षण महंगा, परेशानीजदा और बहुत लम्बे समय में पूरा हो पाता है इसलिए जब समय कम हो और टीका पाने की जल्दी हो, तो सलाह दी जाती है कि तीसरे चरण के मानव परीक्षण की जगह सीधे-सीधे ‘मानव चुनौती परीक्षण किया जाए। 

लेकिन नैतिकतावादी एक जायज सवाल उठाते हैं कि अगर टीका ठीक न हुआ तो वालंटियर गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है, बल्कि उसकी मौत भी हो सकती है। 

उधर, नैतिक सवाल यह भी है कि टीके के  विकास में देरी के चलते विश्व भर में दसियों हज़ार लोग रोज मौत के शिकार हो रहे हैं और उसे रोकने के लिए क्या 'मानव परीक्षण चुनौती' का जोखिम नहीं उठाना चाहिए ?

मानव चुनौती परीक्षण अधिक विश्वसनीय आंकड़े देता है क्योंकि इसमें शोधकर्ताओं को पता रहता है कि वालंटियर को कब और कितनी मात्रा में संक्रमित किया गया था और टीके की कितनी डोज का उस पर कितने दिन में क्या असर हुआ। यह सब जानकारी टीके और संक्रमण के बारे में  वैज्ञानिकों को प्रखर अंतर्दृष्टि प्रदान करती है

(This article was first published in mutilated form in 'Vaigyanik Drishtikon' on 16-10-2020)

Wednesday, September 16, 2020

कोविड काल में आपका बेहतरीन दोस्त है आपका अपना 'मास्क'

 

विनोद वार्ष्णेय

कोविड महामारी थामने के लिए जो प्रतिबन्ध लगाए गए थे, उन्हें हटाने का सिलसिला शुरू हो चुका है और लोग काम-धंधों पर निकल रहे हैं जो बर्बाद हो चुकी अर्थव्यवस्था को सम्हालने और लोगों को खुद अपनी आमदनी बहाल करने के लिए जरूरी है। इस क्रम में जहाँ शैक्षणिक संस्थाओं को भी खोलने पर विचार चल रहा है, वहीं चिंता की बात यह है कि आवागमन और आर्थिक गतिविधियों के शुरू होने के साथ ही भारत में कोविड-19 के मामले सबसे तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व में भारत की आबादी 17.78 प्रतिशत है लेकिन विगत दस दिनों में भारत में नए संक्रमित लोगों की संख्या वैश्विक संख्या का लगभग 32 प्रतिशत रही। 

 यही अनुपात चलता रहा तो अनुमान है कि 15-20 अक्टूबर तक विश्व  में कोरोना के सबसे अधिक एक्टिव केस भारत में होंगे। यह देश के लिए हर दृष्टि से बेहद चिंताजनक चीज होनी चाहिए। ऐसे समय में जब कोविड-19 का पूरी तरह से सुरक्षित टीका अभी कई महीने दूर हो; अस्पतालों में वेंटीलेटर वाले बिस्तरों की कमी हो; जिलों के अस्पतालों में ऑक्सीजन की उपलब्धता का संकट हो; छोटे शहरों से लोग बड़े शहरों में इलाज के लिए भाग रहे हों; वहां भी भर्ती होने के लिए लम्बा इन्तजार कर रहे हों और नितप्रति मौतों की संख्या बढ़ती जा रही हो; तो उन  सभी उपाय अपनाने को जिनसे कोविड-19 का  फैलाव रोकने में मदद मिल सकती हो, 'राष्ट्रीय कर्तव्य' माना जाना चाहिए।

कोविड-19 महामारी का  प्रसार थामने का सबसे सरल उपाय हर जोखिम वाली जगह पर मास्क पहनना है। महामारी थामने में मास्क की भूमिका को लेकर कई शोध-पत्र सामने आ चुके हैं। लेकिन न केवल भारत बल्कि दुनिया के तमाम देशों में काफी बड़ी आबादी शायद मानती है कि मास्क लगाने का कोई फायदा नहीं। ऐसा नहीं कि इन लोगों में गंवार और बेपढ़े लिखे लोग ही हों बल्कि अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग शामिल हैं। प्रत्यक्ष जानकारी है कि बहुत लोग सोचते हैं कि हम तो रोज काढ़ा पीते हैं, इसलिए हमें कोविड नहीं हो सकता। बहुत बड़ी संख्या में किशोर-किशोरियों में यह धारणा फ़ैली हुई है कि पहले तो उन्हें अच्छे प्रतिरक्षण की वजह से संक्रमण हो ही नहीं सकता और अगर होगा भी तो बिना किसी लक्षण वाला या हल्के लक्षण वाला होगा जो यूं ही ठीक हो जाएगा। उधर, कुछ लोग कहते हैं कि मास्क लगाने से उनका जी घुटता है और वे ज्यादा देर तक मास्क नहीं लगा सकते। इसलिए कोई अचरज नहीं कि पार्कों, बाजारों, सड़कों, कार्यालयों और दुकानों में बिना मास्क लगाए काफी लोग मिल जाते हैं और उससे भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है जिनका मास्क नाक और मुंह को ढंकने के स्थान पर उनकी ठोड़ी पर लटका रहता है।

आम आदमी की बात तो भूल जाएं, सरकारें और स्वास्थ्य संगठनों तक ने मास्क के मामले में काफी समय तक बहुत गलतफहमी बनाए रखी। शुरू में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि हर किसी को मास्क पहनने की जरूरत नहीं, केवल वे ही लोग मास्क पहनें जो संक्रमित हैं। बाद में इस संगठन ने अपना परामर्श बदला। सफाई दी गई कि शुरू में बहुत देशों में मास्क की किल्लत थी और डाक्टरों-नर्सों तक को ये सुलभ नहीं थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तर्ज पर ‘यू.एस. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एन्ड प्रिवेंशन’ ने भी एडवाइजरी जारी की कि केवल बीमार लोग ही मास्क पहनें। अमेरिका के ज्योर्जिया राज्य के गवर्नर ब्रायन कैम्प ने तो हर किसी के लिए सार्वजनिक स्थलों पर मास्क पहनने की अनिवार्यता के खिलाफ राजधानी अटलांटा के मेयर केशा लांस बॉटम्स पर मुकदमा दर्ज कर दिया। खैर बाद में वह उन्होंने वापस ले लिया। भारत में इस मामले में सरकारी गैर-जिम्मेदारी का आलम यह कि यह लेख लिखते समय तक भी केंद्र सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर जनता के लिए प्रश्नोत्तर रूप में दी गई जानकारी के खंड में 'क्या मुझे मास्क पहनना चाहिए ?' के जबाव में लिखा गया है कि 'अगर आप बीमार नहीं हैं या किसी बीमार की देखभाल में नहीं लगे हैं तो मास्क पहनकर आप एक मास्क बर्बाद कर रहे हैं।'

उधर, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया, जो कोविड-19 से निपटने सम्बन्धी नीतियां तैयार करने में सरकार की कोर कमेटी के सदस्य हैं, मास्क न पहनने पर भारी जुर्माना लगाने की सलाह देते रहे हैं। दिल्ली सहित कई राज्यों में सार्वजनिक स्थलों पर मास्क न पहनने पर जुर्माना लगाया भी है। लाखों लोगों से जुर्माना वसूला भी गया है। 

मास्क के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहते हैं, यह जानना उचित होगा। वैज्ञानिक अध्ययनों का  निष्कर्ष यह है कि मास्क बेशक किसी को पूरी तरह संक्रमण से न बचा सके लेकिन वह संक्रमण की तीव्रता को बहुत हद तक कम करते हैं। संक्रामक रोगों की विशेषज्ञ डाक्टर और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया (सैन फ्रांसिस्को) में मेडिसिन की प्रोफेसर डॉ. मोनिका गाँधी का शोध इस मामले में सबसे अधिक उद्धृत किया जाता है। उनका कहना है कि कोई भी मास्क परफेक्ट नहीं है, न ही वह इस बात की गारंटी है कि मास्क लगाएंगे तो आप कोरोना वायरस से पूरी तरह बचे रहेंगे, लेकिन यह तय है कि इसकी वजह से आपके शरीर में वायरस कम संख्या में पहुंचेंगे और आप अगर संक्रमित हो भी जाएंगे तो उसका असर हल्का रहेगा, यहाँ तक कि शायद आपको कोई भी लक्षण न उभरें और पता भी न चले कि आप कभी संक्रमित भी हुए थे।

वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि जब कोई संक्रमित व्यक्ति बोलता, छींकता या खांसता है, तो वह आसपास की हवा में वायरस भी छोड़ रहा होता है और जब पास में मौजूद कोई व्यक्ति उस हवा में सांस लेता है तो कुछ वायरसों का उसकी नाक में पहुंच जाना स्वाभाविक है। वायरस के नाक में पहुंचते ही शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली अपना काम शुरू कर देती है यानी एंटीबॉडी बनाना शुरू कर देती है। अगर वायरस की संख्या ज्यादा हो तो एंटीबॉडी उन सभी वायरसों को ख़त्म नहीं कर पातीं और उनमें से कुछ शरीर की कोशिकाओं में घुस जाते हैं और वहां की जेनेटिक प्रणाली पर कब्ज़ा कर तेजी से अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं क्योंकि मानव की अपनी कोशिकाएं खुद वायरस बनाने की फैक्ट्री में तब्दील हो चुकी होती हैं। अगर नए बनने वाले वायरसों की संख्या बहुत हो जाए तो जीवन के लिए गंभीर चुनौती पैदा हो जाती है।

इसी साल जुलाई में एक शोध प्रकाशित हुआ जिसमें हैम्सटर चूहे पर प्रयोग से यह प्रमाणित हुआ कि जिन चूहों में सार्स-कोव-2 वायरस की अधिक संख्या डाली गई, उनमें बीमारी की प्रचंडता अधिक थी और जिनमें कम, उनमें बीमारी का असर हल्का रहा। महामारी विशेषज्ञ मानते हैं कि कोरोना वायरस ज्यादातर हवा में बह रही सूक्ष्म छीटों के जरिए; और कुछ हद तक ‘एरोसोल’ से भी फैलता है। आम तौर पर खांसने या छींकने से जो सूक्ष्म छींटें निकलते है, वे अपेक्षाकृत बड़े कण होते हैं जो कुछ समय बाद जमीन पर गिर जाते हैं लेकिन जो अत्यंत सूक्ष्म तरल कण होते हैं वे हवा में ही घुलमिल कर तैरते रहते हैं जिसे ‘एरोसोल’ कहा जाता है। बोलने या श्वसन क्रिया से भी वायरस आसपास की हवा में आ जाते हैं और कई मिनट तक बने रहते हैं। 

इसलिए यह अच्छी रणनीति है कि इस महामारी के अनिश्चित समय में जब यह जानना मुश्किल है कि कौन वायरस लेकर घूम रहा है और आपको बाजार, अदालत, स्कूल, कॉलेज, दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि कार्य स्थलों पर जाना है, तो इस बात के सभी उपाय किए जाएं कि जिनसे शरीर में कम से कम संख्या में वायरस प्रवेश कर पाएं। 

अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कपड़े के बने मास्क या सामान्य सर्जिकल मास्क वायरसों को 80 प्रतिशत तक नाक या मुंह में जाने से रोक लेते हैं। अनेक देशों से एकत्र किए आंकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि जहाँ-जहाँ मास्क इस्तेमाल किए गए, वहां-वहां बिना लक्षण वाले संक्रमित व्यक्तियों की संख्या अधिक पाई गई। अनेक देशों के इस तरह के आकड़ों का सार यह है कि जहां सभी लोग मास्क पहनते थे, वहां संक्रमण कम फैला और मृत्यु दर भी कम रही।  

 मास्क की गुणवत्ता को लेकर बहुत भ्रम फैलाए गए हैं कि एन-95 किस्म के या वाल्व वाले मास्क ही अच्छे होते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि साधारण सर्जिकल मास्क अथवा (कम-से-कम दो या) तीन परतों वाले कपड़े के मास्क की वायरस रोकने की क्षमता लगभग उतनी ही होती है जितनी कि एन-95 किस्म के या वाल्व वाले महंगे मास्कों की। एक बार पहनने के बाद मास्क को धोना अनिवार्य होता है और  कपड़े के मास्क आसानी से धोए जा सकते हैं। 

 (This article was first published in the 16.09.2020 issue of Hindi newspaper 'Vaigyanik Drishtikon')

 

Sunday, August 16, 2020

दवा और टीके के विकास जितना ही जरूरी है सस्ता और कम समय में नतीजे तेने वाला 'कोरोना टेस्ट'

 विनोद वार्ष्णेय 

यह बहुत लोग जानते हैं कि 'सार्स-कोव-2' वायरस के शिकार बहुत से लोगों में छींकें, बुखार, गले में खराश, सिर या शरीर में दर्द,साँस लेने में तकलीफ, पेट ख़राब, अत्यधिक कमजोरी आदि कोविड-19 के कोई भी लक्षण  नहीं उभरते । पर ऐसे लोग आम जनता में कितने प्रतिशत होते हैं ? 

इस सवाल का जवाब दक्षिण कोरिया में हुए एक अध्ययन से मिला जो 'जर्नल ऑफ़ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन' में भी प्रकाशित हुआ। अध्ययन से उजागर हुआ कि ऐसे लोग 30  प्रतिशत होते हैं। हालांकि मशहूर अमेरिकी प्रतिरक्षा-विज्ञानी एंटनी फॉची मानते आए हैं कि ऐसे लोग 40 प्रतिशत हैं। 

यह उच्च प्रतिशत  आम लोगों के लिए संतोष की बात हो सकती है लेकिन इस महामारी का फैलाव रोकने में लगे विशेषज्ञों के लिए यह सबसे बड़ी चिंता का सबब है क्योंकि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोग अपने आसपास के न जाने कितने लोगों को उसी तरह संक्रमित करते रहते हैं जैसे कि कोई लक्षणों वाला संक्रमित व्यक्ति।

वैज्ञानिक अध्ययन हैं कि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोग कम-से-कम  एक हफ्ते तक दूसरे लोगों को संक्रमण परोसते रहते हैं। उक्त दक्षिण कोरियाई अध्ययन के शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोगों के नाक, गले या फेंफड़े में वायरस की मौजूदगी उतनी ही होती है जितनी कि लक्षण वाले संक्रमित लोगों में। 

इस जानकारी का साफ़ सन्देश यह है कि जहां किसी बस्ती में एक भी संक्रमित व्यक्ति मिले, वहां हर व्यक्ति, चाहे वह बच्चा हो, बूढ़ा या जवान, सबका टेस्ट किया जाना चाहिए। अमेरिका सहित अनेक देशों में जब होटल, मॉल, बाजार, स्कूल-कॉलेज, थिएटर, सिनेमा हॉल, खेल के स्टेडियम आदि खोलने की मांग की जा रही है, तो वहां यह आवाज भी उठाई जा रही है कि इन भीड़-भाड़ वाली जगहों पर आने वाले हर व्यक्ति का टेस्ट किया जाए; जिसको संक्रमित पाया जाए, उसे वापस भेज दिया जाए और हर तीन चार दिन बाद टेस्ट दोहराया जाए।

लेकिन क्या हर व्यक्ति का टेस्ट करना संभव है ? खासतौर से तब, जब जमीनी हकीकत यह हो कि अमेरिका जैसे सुविधासम्पन्न देश में भी टेस्ट की सुविधाएं बहुत होते हुए भी, इतनी कम हैं कि टेस्ट-रिपोर्ट बहुत देर में, कहीं-कहीं तो सात से दस  दिन बाद मिल पाती हैं। 

इसकी बड़ी वजह यह बताई जाती है कि अमेरिका में कोरोनावायरस की जांच ज्यादातर ‘आरटी-पीसीआर’ (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन-पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन) विधि से की जाती है, जो न केवल महंगी विधि है, बल्कि अधिक समय भी लेती है। 

भारत में अधिसंख्य लोगों का ‘आरटी-पीसीआर’ टेस्ट हो जाए, यह तो फ़िलहाल संभव ही नहीं। लेकिन, यह पता करने के लिए कि कौन व्यक्ति संक्रमित है, अभी तक आदर्श टेस्ट 'आरटी-पीसीआर' को ही माना जाता है। इस पद्धति का आविष्कार अमेरिकी वैज्ञानिक मूलिस ने 1985 में किया था और इसके लिए उन्हें 1993 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था। 

इस विधि की खासियत है कि संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में भी जब नाक या गले से लिए गए नमूने में वायरस की संख्या बहुत कम होती है, वायरस के डीएनए की मौजूदगी का पता लग जाता है क्योंकि इस विधि में टेस्ट से पहले डीएनए की अरबों प्रतियां बना ली जाती हैं। 

ज्ञात रहे कि कोरोनावायरस में केवल ‘आरएनए’ होता है जिसे टेस्ट से पहले ‘डीएनए’ में बदलना जरूरी होता  है। इस प्रक्रिया को 'रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन' कहते हैं। जेनेटिक सामग्री की मात्रा बढ़ाने की गरज से ऐसा करना जरूरी होता है क्योंकि प्रतिलिपियाँ केवल डीएनए (डीऑक्सीराइबो नुक्लिइक एसिड) की ही बनाई जा सकती हैं, आरएनए (राइबो नुक्लिइक एसिड) की नहीं।

टेस्ट के लिए नाक या गले से स्राव का नमूना लेते हैं। इस नमूने में से पहले रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिए प्रोटीन और वसा आदि जैसी फालतू चीजें हटा दी जाती हैं और फिर ‘आरएनए’ अलग कर लिया जाता है। इसके बाद एक विशिष्ट एंजाइम का उपयोग करके इसे ‘डीएनए’में बदल देते हैं। इस सबके लिए उन्नत किस्म की मशीनों और रेजंट (अभिकर्मक रसायन) के अलावा प्रशिक्षित व्यक्ति की भी जरूरत होती है। इसलिए यह टेस्ट काफी महंगा होता है। 

भारत में एक समय था जब प्रयोगशालाएं इस टेस्ट के अनाब-शनाब दाम वसूल रही थीं तो इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने इसकी कीमत पर 4,500 रुपये की सीमा लगा दी। भारत में अब इस टेस्ट के लिए 190 से अधिक देशी-विदेशी कंपनियों के किट मंजूर किए जा चुके हैं और टेस्ट की कीमत लगभग आधी हो चुकी है। कीमत कम करने में भारतीय वैज्ञानिकों की भी भूमिका रही है। मसलन, श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज एन्ड टेक्नोलॉजी (त्रिवेंद्रम) ने जांच नमूने में से ‘आरएनए’ निकालने की स्वदेशी किट विकसित की ,जो आयातित किट से बहुत सस्ती है।  

इसके अलावा आईआईटी-दिल्ली के 'कुसुम स्कूल ऑफ़ बायोलॉजिकल साइंसेज' के शोधकर्ताओं ने 'कोरोश्योर' नाम की अपनी 'आरटी-पीसीआर' किट विकसित की है जो दुनिया की सबसे सस्ती किट है। एक कंपनी ने तो इसकी कीमत 499 रुपए घोषित भी कर दी है। यह टेक्नोलॉजी किट-उत्पादन के लिए 10 कंपनियों को हस्तांतरित की जा रही है।  

 जारी हैं ‘आरटी-पीसीआर टेस्ट’ को सस्ता करने की कोशिशें 

महामारी के दौर में जांच की भारी मांग को देखते हुए ‘आरटी-पीसीआर टेस्ट’ को सस्ता , त्वरित और आसान बनाने के लिए विश्व की अनेक प्रयोगशालाओं में प्रयास चलते रहे हैं जिनके फलस्वरूप कई नई विधियां सामने आई हैं मसलन डीएनए की मात्रा बढ़ाने के लिए एक नई विधि ईजाद हुई है जिसका नाम है ‘आरटी-लैंप’ (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन-लूप मीडिएटेड आइसोथर्मल एम्प्लिफिकेशन)। इसके आधार पर किए गए टेस्ट परंपरागत ‘आरटी-पीसीआर’जितने ही सटीक नतीजे देते हैं, पर ‘डीएनए’ के प्रतिलिपिकरण के लिए महँगी प्रक्रियाओं से निजात मिल जाती है और टेस्ट का काम जल्दी, लगभग आधे समय में पूरा हो जाता है। 

भारत में ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटीग्रेटिव मेडिसिन’ (जम्मू) ने अपने बलबूते इस नई टेक्नोलॉजी ‘आरटी-लैंप’ का विकास करने में कामयाबी हासिल की। इस नई टेक्नोलॉजी पर आधारित किट के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए रिलायंस इंडस्ट्रीज से करार किया गया है। उम्मीद की जा रही है कि यह किट 200 रुपए के आसपास सुलभ होगी और जांच रिपोर्ट एक घंटे में मिल जाया करेगी। चूंकि इसके लिए उन्नत प्रयोगशालाओं की जरूरत नहीं, इसलिए गाँवों और दूरदराज के इलाकों में भी ये उच्च कोटि के टेस्ट किए जा सकेंगे।  

पर यह अभी कुछ हफ़्तों बाद संभव होगा। फिलहाल तो भारत सहित दुनिया भर में बड़े पैमाने पर टेस्टिंग के लिए जो विधि इस्तेमाल की जा रही है, वह है 'रैपिड एंटीजन टेस्ट'। इस टेस्ट में 'डीएनए' की जगह वायरस की संक्रामक प्रोटीन की पहचान की जाती है। इस टेस्ट के लिए किसी प्रयोगशाला की जरूरत नहीं होती और इसका नतीजा 20 मिनट में मिल जाता है, बेशक वे कुछ कम विश्वसनीय होते हैं।

संक्रमण शुरू होने के साढ़े चार महीने बाद 

मिली 'एंटीजन टेस्ट' को मंजूरी 

भारत में पहला संक्रमण 30 जनवरी को सामने आया था। शुरू में संक्रमण फैलाव की दर बहुत कम थी लेकिन जब 'हॉट-स्पॉट' की संख्या बढ़ने लगी, तब इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने 15 जून को 'रैपिड एंटीजन टेस्ट' के पहले किट को मंजूरी दी जो दक्षिण कोरिया की एक कंपनी 'एसडी बायो सेंसर' ने विकसित की थी लेकिन जिसका उत्पादन मानेसर (गुरुग्राम) में होता था।  

'एंटीजन टेस्ट' की 'सेंसिटिविटी' (सुग्राहिता) कम होती है, महज 50 से लेकर 84 प्रतिशत। इसलिए यह विधि कई बार संक्रमित लोगों को भी संक्रमण-मुक्त बता देती है। इसलिए इसके इस्तेमाल को लेकर बहुत विवाद पैदा हुए और एक याचिका के जरिए इसके इस्तेमाल को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई। 

लेकिन इस टेस्ट का इस्तेमाल कन्टेनमेंट जोन और उन इलाकों में बहुत फायदेमंद रहा जो संक्रमण के 'हॉट स्पॉट' बन चुके थे और जहाँ संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आए बहुत बड़ी संख्या में लोगों के टेस्ट करने की जरूरत महसूस की जा रही थी। कम सुग्राही होने के बावजूद इससे बिना लक्षण वाले संक्रमित लोगों की तेजी से पहचान की जा सकी। अब अमेरिका में भी जहाँ विश्व में सबसे अधिक लोग (लेख लिखे जाने तक 55 लाख) संक्रमित हुए हैं, महामारी विशेषज्ञ इस टेस्ट को अधिकाधिक अपनाने के लिए जोर डाल रहे हैं।

जानने वाली बात यह है कि बेशक यह टेस्ट 'फाल्स नेगेटिव' रिपोर्ट देने के लिए बदनाम है, पर इसकी 'स्पेसिफिसिटी' (ट्रू पॉजिटिव देने की क्षमता) बहुत अच्छी है यानी यह अगर वह किसी व्यक्ति को संक्रमित बता दे तो वह फिर 98-99 प्रतिशत तक मामलों में संक्रमित ही निकलता है। 

टेस्ट की 'सेंसिटिविटी' नमूने में उपलब्ध संक्रमणकारी प्रोटीन की मात्रा पर निर्भर करती है--यदि प्रोटीन बहुत कम हो तो 'एंटीजन टेस्टिंग किट' उसे खोज नहीं पाती। पीसीआर टेस्ट में जिस तरह जांच की सटीकता बढ़ाने के लिये डीएनए अणुओं की संख्या बढ़ाई जाती है, उस तरह एंटीजन टेस्ट में एंटीजन की मात्रा बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं। 

पर इस टेस्ट की लागत सिर्फ 20 रुपए है, और यह आधे घंटे में नतीजा दे देती है। इस टेक्नोलॉजी की स्वदेशी टेस्ट किट भी विकसित की जा चुकी है और पुणे स्थित एक भारतीय कम्पनी 'मायलैब्स' इसका उत्पादन कर रही है। 

'लॉकडाउन' में टेस्ट करने की जरूरत बढ़ गई  

भारत में 24 मार्च तक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या 564 और उससे होने वाली मौतें 12 हो गईं तो अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिन के देशव्यापी 'लॉक डाउन' की घोषणा कर दी। तभी से देश  की आबादी में कहाँ-कहाँ संक्रमण है, जानने के लिए तेजी से नतीजे देने वाले टेस्ट की जरूरत महसूस की जा रही थी। 

तब तक कोई भी एंटीजन टेस्ट देश में उपलब्ध नहीं था। तेजी से नतीजे देने वाले एक अन्य किस्म के 'एंटीबाडी टेस्ट' किट जिसमें संक्रमण के फलस्वरूप शरीर में बनने वाले एंटीबॉडी की जांच की जाती है, चीन से  हासिल करने की कोशिश की जा रही थी। 

इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने 28 मार्च को 5 लाख किट खरीदने के प्रयास शुरू कर दिए थे। सबसे पहले ये किट चीन की दो कंपनियों से आयात किए गए जिनको नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वाइरोलॉजी ने अनुमोदित किया था। लेकिन ये भी समय पर नहीं आ पा रहे थे क्योंकि चीन सरकार ने निर्यात पर अंकुश लगाया हुआ था तो विदेश मंत्रालय ने चीन पर दबाव बनाया। 

तीन निर्धारित तिथि बीत जाने के बाद अंततः 16 अप्रैल को चीनी किट भारत पहुंचे। समझा जा सकता है कि देश में किस तरह टेस्ट किटों की किल्लत रही। उस समय तक देश में दस लाख लोगों की आबादी के बीच कुल 203 लोगों के टेस्ट हो पा रहे थे। 

उधर, इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने तय किया कि देश में 'हॉटस्पॉट' बन चुके 325 जिलों में बुखार, खांसी, सांस में तकलीफ वाले सभी व्यक्तिओं का टेस्ट किया जाए। यह भी नियम बनाया कि ‘एंटीबाडी टेस्ट’ लक्षण उभरने के सात दिन बाद ही किया जाए क्योंकि वायरस के हमले के जबाव में शरीर में एंटीबाडी का निर्माण पांच या सात दिन के बाद ही होता है।  

लेकिन एंटीबाडी टेस्ट करने की यह शुरुआती मुहिम फेल हो गई क्योंकि आयातित चीनी किट अनियमित नतीजे दे रहे थे। जांच के बाद अंततः इनके इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई। 

यह वह वक्त था जब भारत में ‘लॉक डाउन’ खोलने के बारे में विचार चल रहा था और यह तय करना जरूरी था कि कौन से इलाके ऐसे हों जहाँ प्रतिबन्ध जारी  रखे जाएं और किस हालत के व्यक्ति के लिए कौन सा टेस्ट किए जाए। 

‘एंटीबाडी टेस्ट’ का इस्तेमाल चीन और सिंगापुर में संक्रमित व्यक्तियों का पता लगाने के लिए किया गया था, वहीं जर्मनी, इटली, ब्रिटेन और अमेरिका इसका इस्तेमाल यह पता लगाने के लिए कर रहे थे कि जो व्यक्ति काम पर जा रहे हैं, वे प्रतिरक्षित हैं या नहीं। 

 नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने 

स्वदेशी 'एंटीबॉडी किट' बनाया 

इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च जहाँ कई विदेशी कंपनियों के 'एंटीबाडी टेस्ट किट' परख रही थी, वहीं भारतीय प्रयोगशालाएं स्वदेशी किट के विकास के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहीं थी। 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी (पुणे) ने इसमें सबसे पहले कामयाबी हासिल की। इसने 'कोविड कवच' नाम की किट विकसित की और टेक्नोलॉजी भारत की एक प्रमुख दवा निर्माता कम्पनी 'जाइडस कैडिला' को हस्तांतरित की जिसने 22 मई तक पहला बैच तैयार कर दिखा दिया। 

इस किट की विशेषता थी कि यह ढाई घंटे के एक परिचालन-चक्र में एक साथ 90 नमूनों को टेस्ट कर सकती थी। लेकिन बहुत से लोगों में इस टेस्ट के बारे में संदेह बना रहा क्योंकि इसकी क्षमता इस मायने में सीमित थी कि यह सही नतीजा उन्हीं व्यक्तियों का दे पाती थी जिनके संक्रमण को कम-से-कम दस दिन बीत चुके हों। 

असल में यह टेस्ट रोगी की चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतों के लिए नहीं था, बल्कि सिर्फ यह जानने के लिए उपयोगी था  कि आबादी में कितने लोग संक्रमित हो चुके हैं। बाद में इस एंटीबॉडी टेस्ट का इस्तेमाल दिल्ली और मुंबई की 'धरावी' बस्ती में हुए 'सीरो सर्वे' में किया गया।

पर, मौजूदा महामारी के स्वरूप को देखते हुए टेस्ट की जरूरत मौजूदा जांच विधियों से पूरी नहीं होने वाली थी। इसलिए देश-विदेश के वैज्ञानिक नए-नए टेस्ट विकसित करने में लगे रहे। इनमें से कुछ उन नेतृत्वकारी प्रयासों का जिक्र किया जाना समीचीन होगा जिनमें भारत की अपनी हिस्सेदारी रही। 

बनाया है ऐसा 'ऐप' जो मोबाइल फ़ोन पर ही 

आपका कोरोना टेस्ट कर दे 

इनमें सबसे दिलचस्प शोध उस टेस्ट के विकास को लेकर हुई है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने मोबाइल फ़ोन पर ही अपने संक्रमण की स्थिति जान सकेगा। इस अनुसन्धान में केंद्र सरकार के 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' का समर्थन महत्वपूर्ण रहा। इसके समर्थन से 'अकुली लैब्स' ने पहले से इस्तेमाल हो रहे एक बायोमार्कर एंड्रॉइड टूल 'लाइफस' को वह नया रूप दिया जिससे कोई भी व्यक्ति स्वतः ही अपनी कोविड-19 की स्थिति जांच सके। 

इसकी कार्यविधि बहुत सरल है। मोबाइल फ़ोन के पिछले वाले कैमरे पर पांच मिनट तक तर्जनी उंगली रखो तो यह नाड़ी और रक्त की मात्रा में अंतर के आधार पर 95 बायोमार्कर की जानकारी देने लगता है। इस काम में स्मार्ट फ़ोन का ही सेंसर और प्रोसेसर इस्तेमाल होता है। इस टेस्ट पर 'मेदांता मेडिसिटी हॉस्पिटल' में हुए अध्ययन में इसकी 'स्पेसिफिसिटी' 90 प्रतिशत और 'सेंसिटिविटी' 92 प्रतिशत निकल कर आई है जो काफी अच्छी है। इस टेक्नोलॉजी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मान्यता दी है। उम्मीद की जा रही है सितम्बर के अंत तक यह मोबाइल ऐप सर्वसुलभ होगा।  

बहुत कम समय में जांच के नतीजे देने में सक्षम कई नई जांच विधियों का विकास इजराइल और भारत के वैज्ञानिक मिलकर कर रहे हैं। इनमें भारत की 'कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक इंडस्ट्रियल रिसर्च' और 'डिफेन्स रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन' तथा इजराइल की ' डाइरेक्टोरेट ऑफ़ डिफेन्स रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट' के वैज्ञानिक शामिल हैं। 

इनमें एक जांच विधि के विकास में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल हुआ है जो बोलने या खांसने की ध्वनि तरंगों के विश्लेषण से संक्रमण का पता लगाकर दे सकेगी। एक अन्य दिलचस्प और चमत्कारी विधि है, श्वास में मौजूद हजारों जैव-रसायनों की बहुत उच्च आवृत्ति (टेरा हेर्त्ज़ फ्रीक्वेंसी) की तरंगों के इस्तेमाल से जाँच। इस विधि में जैव-रसायनों के इस्तेमाल की जगह 'फोटोनिक्स' और 'इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग' का सम्मिलित इस्तेमाल हुआ है। 

एक अन्य प्रयास के अंतर्गत एक ऐसी  विधि विकसित की जा रही है जिससे 'आरटी-पीसीआर' जांच के लिए जरूरी जेनेटिक सामग्री (डीएनए) की मात्रा घर पर ही बढ़ाई जा सकेगी। ये सभी टेस्ट इस किस्म के है जो एक मिनट से लेकर आधे घंटे में नतीजा दे सकते हैं। इन विविध जांच-विधियों को दिल्ली के लोकनायक जयप्रकाश, राम मनोहर लोहिया एवं सर गंगा राम हॉस्पिटल और लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में  परखा जा रहा है।   

एक अन्य सफलता भारत में 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ जीनोमिक एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी' को मिली है जिसने गर्भावस्था परीक्षण के लिए इस्तेमाल होने वाली 'पेपर स्ट्रिप' जैसी जांच विधि विकसित की है जो जीन-संपादन की आधुनिकतम 'क्रिस्पर' टेक्नोलॉजी के आधार पर काम करती है। लेकिन इसके इस्तेमाल के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होगी। 

इस तरह की किट का विकास अमेरिका में भी हो चुका है और उसके इस्तेमाल के लिए अनुमति भी मिल चुकी है। पर अभी इस टेक्नोलॉजी में काफी परिष्कार किया जाना है। भारत में इस तकनीक की अवधारणा सबसे पहले 'सिकल सेल मिशन' के तहत तैयार की गई थी। कोविड-19 के प्रकोप को देखते हुए वैज्ञानिकों ने सोचा--क्यों न इसका इस्तेमाल नए कोरोना वायरस के अनुवांशिक अनुक्रम को पहचानने के लिए किया जाए। इसी का नतीजा अत्याधुनिक जीन एडिटिंग तकनीक के आधार पर स्वदेशी टेस्टिंग किट 'फेलुदा' के रूप में सामने आया। इसमें पेपर-स्ट्रिप केमिस्ट्री का भी इस्तेमाल किया गया है जिससे संक्रमण की मौजूदगी का एक मिनिट में पता किया जा सकता है।  

कुछ महामारी विशेषज्ञ मानते हैं कि मौजूदा कोरोनावायरस का प्रकोप लम्बे समय तक चलेगा। यह भी आशंका है कि यह चला जाएगा और फिर बार-बार लौटकर आएगा। इस परिप्रेक्ष्य में त्वरित और विश्वसनीय जांच-विधियों का महत्व नई दवाइयों और टीकों के विकास से भी अधिक महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नए शोध और नई जांच विधियों का लाभ आम लोगों तक जल्द पहुंचेगा।


Thursday, July 16, 2020

भारत में कोरोना के दो टीके 'कोवैक्सिन' और 'जाइकोव-डी' मानव परीक्षण के दौर में पहुंचे

विनोद वार्ष्णेय 

मौजूदा कोरोनावायरस ने जो अजीब माहौल बनाया है, उसमें बीमारी से ज्यादा सर्वव्यापी है, बीमारी का भय जो संक्रमित पाए जाने पर पृथकवास या अस्पताल जाने की मजबूरी, दवाओं की सफलता-असफलता की अनिश्चितता, ऑक्सीजन और वेंटीलेटर के बावजूद वैश्विक स्तर पर 7-8 प्रतिशत की मृत्यु दर से पैदा हुआ है। इस सबसे बजबजाता सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस वायरस का कहर  ऐसे ही चलता रहेगा।  

फिर, पिछले हफ्ते ‘मेसाचुसैट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ के एक अध्ययन ने और डरा दिया कि यदि इस नए वायरस से निपटने की कोई दवा न निकली और न टीका ईजाद हुआ तो अगले साल मई में  दुनिया में सबसे अधिक कोरोना संक्रमण के मामले भारत में सामने आ रहे होंगे--हर दिन 2 लाख 87 हज़ार और तब तक विश्व में कोई 25 करोड़ लोग संक्रमण के दौर से गुजर चुके होंगे। यही नहीं, कोविड-19 से 18 लाख लोगों की मौत हो चुकी होगी। कौन इसे 'फेक न्यूज़' कहकर खारिज नहीं करना चाहेगा ! पर विश्व भर में जन-स्वास्थ्य से सरोकर रखने वाले लोगों ने इसे चुनौती के रूप में लिया है।  

यह दवा विकसित करने, और उससे कहीं ज्यादा, टीका विकसित करने के प्रयासों में परलक्षित है। ताजा जानकारी के अनुसार विश्व में अब तक पांच विभिन्न प्रणालियों के आधार पर 155 टीके बन चुके हैं जिनमें से 22 मानव परीक्षण के दौर में उतर चुके हैं। हर हफ्ते यह आंकड़ा बढ़ ही रहा है। संकल्पना के दौर से उठकर टीके के अभिकल्पित होने और प्रयोगशलाओं से गुजरते हुए मानव-परीक्षण के दौर तक आने में वैज्ञानिक ज्ञान, कौशल और विदग्धता की अहम भूमिका होती है। लेकिन वास्तव में जो टीका बना, वह काम करेगा या नहीं, कितने दिन के लिए प्रतिरक्षण देगा और कहीं यह कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाएगा, इस सबका पता तो मानव परीक्षण से ही चलता है !  

इतिहास गवाह है कि बहुत कम टीके मानव परीक्षण में सफल हो पाते हैं।  वैक्सीन अलायन्स 'गैवी' के मुख्यकार्यकारी अधिकारी सैट बर्कले के अनुसार ज्यादातर टीके ‘फेल’ही होते हैं।  केवल 15-20 प्रतिशत टीके ही उस दौर में पहुंचते हैं कि उसे लोगों को दिया जा सके। चक्कर यह है कि हर नए टीके को आम इस्तेमाल के लिए जारी करने से पहले उसके तीन मानव परीक्षण जरूरी होते हैं जिनमें टीके को कई मानदंडों पर खरा उतरना होता है। सबसे अहम होता है कि क्या यह ‘सेफ’ है यानी यह शरीर में कोई नई स्वास्थ्य-समस्या तो पैदा नहीं करेगा ? दवाओं की बात अलग है, कोई नई दवा विकसित होती है तो वह बीमार व्यक्ति को ही दी जाती है, लेकिन टीका तो स्वस्थ व्यक्ति को दिया जाता है। खराब टीके के जरिए स्वस्थ व्यक्तियों को कोई नई स्वास्थ्य समस्या सौंप देना कोई भी उचित नहीं मानेगा। इसलिए परीक्षण के जरिए टीके का निरापद सिद्ध होना अनिवार्य माना जाता है।

टीके का दूसरा मानक होता है कि क्या वह सचमुच शरीर में रोग- प्रतिरक्षण पैदा करेगा। इसे मापने का जैव वैज्ञानिकों का तरीका है, यह देखना कि टीका लगाने के बाद वे प्रोटीन (एंटीबाडीज) पैदा हुए या नहीं जो वायरस का खात्मा करते हैं। बेशक, मानव-परीक्षण से पूर्व परखनली में कोशिकाओं पर और परीक्षण पशुओं (चूहे आदि) पर इसकी पुष्टि कर ली जाती है। पर जेनेटिक स्तर पर मानव बहुत भिन्न और विविध होता है, इसलिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी होता है कि क्या सचमुच में टीके का असर मानवों में भी वैसा ही होगा, जैसा कि पशुओं या कोशिकाओं में पाया गया था। हर व्यक्ति पर टीके का असर एक जैसा नहीं हो सकता क्योंकि आयु, लिंग, स्वास्थ्य का स्तर, पहले से चली आ रही बीमारियां, पहले लग चुके टीकों का असर जैसी अनेक भिन्नताएं टीके की प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं। टीके के मामले में मात्रा (डोज) और वह कब-कब कितनी बार दिया जाना है, यानी समयक्रम तय करने का भी सवाल होता है जिसे मानव-परीक्षण के जरिए ही तय किया जाता है। 

तीसरा मानक होता है, यह जानना कि टीके से प्रतिरक्षण कितने समय बाद पैदा हुआ और वह कितनी अवधि तक बना रहेगा। इन सबके अलावा परीक्षण के दौरान एक मसला 'क्रॉस-रिएक्टिविटी' का होता है जिसे आम भाषा में एलर्जी पैदा हो जाना भी कह सकते हैं। ‘क्रॉस-रिएक्टिविटी' की वजह से पैदा हुई रोग-प्रतिरोधिता वास्तविक लक्षित वायरस की जगह किसी मिलते-जुलते अन्य लक्ष्य पर ज्यादा प्रहार करती है जिससे टीके का असली मकसद ही ख़त्म हो जाता है। यही वजह है कि टीका विकास का काम काफी जटिल और समयसाध्य माना जाता है। इसमें कोई भी जल्दबाजी और लापरवाही अक्षम्य होनी चाहिए।

 'कोवैक्सिन' कोरोना की भारतीय नस्ल पर आधारित 

भारत का टीका उत्पादन के क्षेत्र में ख़ासा नाम है। देश में कई बीमारियों के टीकों के विकास पर काम चल रहा है। भारत में कोरोना वायरस के दस्तक देने के फ़ौरन बाद कोविड-19 का टीका विकसित करने का काम छह अलग-अलग संस्थानों-कम्पनियों ने शुरू कर दिया था जिनमें से दो टीकों--'कोवैक्सिन' और 'ज़ाइकोव-डी'--के मानव परीक्षण की अनुमति मिल चुकी है। इन दोनों ही कंपनियों को टीके के उत्पादन और विकास का ख़ासा अनुभव है। 'कोवैक्सिन' हैदराबाद की निजी क्षेत्र की कंपनी 'भारत बायोटेक' और पुणे स्थित सरकारी संस्थान ' नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी' ने मिलकर बनाया है। वायरस नए परिवेश में पहुँचने पर अक्सर कुछ बदल जाते हैं। इसलिए कोई जरूरी नहीं कि 10 जनवरी को जो कोरोनावायरस वुहान (चीन) में मिला था, हू-ब-हू वही इस समय भारत में फ़ैल रहा हो। पर नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने जो वायरस पृथक कर भारत बायोटेक को दिया है, वह एक भारतीय से निकाला गया है। इसका अर्थ है, इसके आधार पर विकसित टीका भारत में कहीं अधिक कामयाब होगा। 

'कोवैक्सिन'को निष्क्रिय वायरस के आधार पर बनाया गया है जो काफी पुरानी, सुरक्षित और प्रमाणित टेक्नोलॉजी मानी जाती है। जानकार लोगों के मुताबिक़ टीके में निष्क्रिय रैबीज वायरस में करोनावायरस की सतह से जुड़ी एक प्रोटीन डाली गई है जिससे शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली सक्रिय हो जाएगी। चूंकि भारत बायोटेक के पास रेबीज का टीका बनाने की बड़ी क्षमता है, इसलिए माना जा रहा है कि मानव परीक्षण में सफल होने के बाद इस टीके के बड़े पैमाने पर उत्पादन में विलम्ब नहीं होगा। 

'जाइडस कैडिला' अहमदाबाद स्थित निजी कंपनी है जिसके दो टीका विकास केंद्र हैं जिनमें से एक इटली में है। 'जाइडस कैडिला' चार तरह के टीके बनाने पर काम कर रहा था जिनमें से 'प्लाज्मिड-डीएनए' आधारित टीके को पशु-परीक्षण में काफी अच्छे नतीजे देने वाला पाया गया। प्लाज्मिड छोटा-सा डीएनए अणु होता है जो क्रोमोज़ोम के अतिरिक्त होता है। इसमें कुछ ही जीन होते हैं। कृत्रिम रूप से बनाए प्लाज्मिड का इस्तेमाल वाहक (vector) के रूप में किया जा सकता है। टीके के लिए प्लाज्मिड में कोरोना वायरस के भी कुछ चुनिंदा जीन डाल दिए जाते हैं। 

सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कंट्रौल आर्गेनाईजेशन ने तीन जुलाई को इस जेनेटिक टीके के पहले और दूसरे चरण के मानव-परीक्षण की अनुमति दी थी। कंपनी की योजना है कि पहले चरण के बाद दूसरे चरण का परीक्षण तुरंत शुरू कर दिया जाए जिससे तीन महीने में दोनों परीक्षण पूरे हो जाएं। कयास लगाए जा रहे हैं कि यदि देश में कोरोना संक्रमण का प्रसार थमता नज़र नहीं आया तो आपातकाल मानकर भारत सरकार तीसरे चरण का मानव-परीक्षण किए बिना भी टीके के उत्पादन और इस्तेमाल की अनुमति दे सकती है। इस बात का अंदाजा इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के उस फरमान से भी मिलता है जिसमें कहा गया कि जनता के लिए टीका 15 अगस्त तक बन जाना चाहिए। बहरहाल, देश के अधिकाँश वैज्ञानिकों और संस्थानों ने इस समय सीमा को अव्यवहारिक और बेहूदा बताया। 

दस जुलाई को सांसद जयराम रमेश की अध्यक्षता में हुई विज्ञान सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति की बैठक में विज्ञान प्रौद्योगिकी विभाग, कौंसिल ऑफ़ साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अधिकारियों के अलावा भारत सरकार के प्रधान विज्ञान सलाहकार के. विजय राघवन ने बताया कि टीका अगले साल के प्रारम्भ तक ही बाज़ार में आ सकता है (15 अगस्त तक नहीं)।  बैठक में यह भी जानकारी दी गई कि यह जरूरी नहीं कि यह टीका स्वदेशी ही हो। समय की जरूरत देखते हुए अन्यत्र विकसित हो रहे टीकों में से भी किसी का देश में उत्पादन शुरू हो सकता है।  

उल्लेखनीय है कि कम से कम तीन टीके--अमेरिकी कंपनी मोडर्ना का 'एम-आरएनए-1273', ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और स्वीडिश-ब्रिटिश कंपनी एस्ट्राजेनेका का 'ए जेड डी-12222' और चीनी कंपनी  सिनोवैक का 'कोरोनावैक'-- इन दिनों मानव-परीक्षण के तीसरे चरण में चल रहे हैं। इनके आलावा भी तीन और टीके इस दौर में प्रवेश करने वाले हैं। गौरतलब है कि तीसरे चरण की कामयाबी के बाद ही, जिसमें छह महीने लगते हैं, टीका-उत्पादन की अनुमति दी जाती है। आपातस्थिति की बात अलग है।  

(यह लेख हिंदी पाक्षिक 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के 16 अप्रैल, 2020 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)

Tuesday, July 14, 2020

45 वर्ष चले जीवट-भरे विज्ञान-कर्म का रोचक इतिहास

विनोद वार्ष्णेय 

अरुण कुमार असफल की नई पुस्तक 'महा-अभियान की महागाथा--78 डिग्री" में उस समय की दास्तान है जब वैज्ञानिकों में यह जानने की प्रबल जिज्ञासा  थी कि आखिर हमारी पृथ्वी का आकार कैसा है, इसकी वास्तविक माप कितनी है। आसमान में तारों की स्थिति के अवलोकन के आधार पर  कुछ सिद्धांत विकसित हुए थे जिनसे कुछ गणनाएं और दावे पेश किए जा रहे थे। लेकिन इनकी पुष्टि के कोई साधन न थे। 

आज स्थिति अलग है: आकाश से अवलोकन करने वाले और चप्पे-चप्पे की फोटो लेकर पृथ्वी पर भेजने 
में सक्षम उपग्रह हैं । हाल में भारत ने अंतरिक्ष में कार्टोसैट-3 उपग्रह प्रक्षेपित  किया जो 605 किलोमीटर की ऊँचाई से पृथ्वी के दृष्टि वर्णक्रम के सभी रंगों की स्पष्ट तस्वीरें भेज रहा है। इन डिजिटल चित्रों से पृथ्वी के किसी भी इलाके की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई या गहराई नापने के साथ साथ यह भी पता लग जाता है कि कहां रेगिस्तान है और कहाँ जलप्लावन या दलदल, सूखी मिट्टी, चट्टान, ढलान, चढ़ाई, जंगल, सड़क, भवन आदि। इसमें एक ऐसा  कैमरा भी है जो बता सकता है कि पृथ्वी की सतह पर कहाँ कितना तापमान है। 

लेकिन इस पुस्तक में वर्णित ज़माना वह है, जब पृथ्वी की सतह पर दो बिंदुओं के बीच की दूरी जंजीर से नापी जाती थी। मापन सम्बन्धी यांत्रिकी, खुर्दबीन, दूरबीन आदि के विकास के वे शुरूआती दिन थे। ये चीजें उस समय के हिसाब से महान उपलब्धियां थीं और कुछ ही देश उन्हें बना पाते थे। इन उपकरणों के जरिए पूरी पृथ्वी को सही-सही नापना और उसका सटीक मानचित्र बनाने का उपक्रम सचमुच में मानवीय हौसले, परिश्रम, धैर्य और कुशलता की दरकार रखता था। 

भू-सर्वेक्षण की प्रक्रिया में पूरी पृथ्वी को काल्पनिक देशांतर और अक्षांश रेखाओं में विभाजित कर लिया जाता है। उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 देशांतर रेखाएं  हैं जिनका नामकरण शून्य से लेकर 360 डिग्री तक किया गया है। लेखक  ने जिस महागाथा के बारे में लिखा है, वह विशेषकर 2,500 किलोमीटर लम्बी  '78 डिग्री देशांतर रेखा' के मापन से जुड़ी है जो विश्व का इस तरह का सबसे बड़ा वैज्ञानिक अभियान था। ये काल्पनिक रेखाएं गोल पृथ्वी पर हैं इसलिए गोलाकार होती हैं इसलिए इसका उल्लेख महत्तम चाप (या महाचाप) के रूप में भी किया जाता है। लेखक बताता है कि भारत में चले इस अभियान में जितनी जानें गईं, उतनी ही भारत में उस दौरान विभिन्न युद्धों में गई होंगी। 

इन युद्धों, योद्धाओं के पराक्रम और रणकौशल, राजाओं-नबावों की हार-जीतों और नए साम्राज्य की 
स्थापनाओं के इतिहास पर सैंकड़ों पुस्तकें हैं लेकिन मानवीय वैज्ञानिक जिज्ञासा के वशीभूत चले उक्त 
महा-अभियान पर ढूढ़ने पर भी पर हिंदी में कुछ ख़ास नहीं मिलता। संभवतः इस विषय पर हिंदी में  
यह अपने किस्म की पहली पुस्तक है।  

पुस्तक के लेखक 'भारतीय सर्वेक्षण विभाग' में कार्यरत हैं और इस नाते सर्वेक्षण और मानचित्रण के विज्ञान, उससे जुड़ी तकनीकी प्रक्रियाओं और उसके इतिहास से बखूबी वाकिफ हैं जिससे पुस्तक विभिन्न तकनीकी विवरण के मामले में विश्वसनीय है। वे साहित्य प्रेमी भी हैं और कथा साहित्य लिखते रहे हैं। शायद यही वजह है कि पुस्तक में कथा तत्व प्रचुरता से है। लेकिन पुस्तक पृथ्वी की सतह की तरह है, कहीं सरल, सपाट, मनोरम तो कहीं बीहड़। बीहड़ स्थलों पर पाठक को कथ्य समझने के लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ेगा और रसास्वादन में कुछ मुश्किल होगी। 

पर विज्ञान की किताब का रसास्वादन पाठक के विषय सम्बन्धी ज्ञान से भी जुड़ा होता है। जो पाठक भूगोल या भू-सर्वेक्षण के कार्य या सिद्धांत से अपरिचित हैं, उनके लिए महत्तम चाप, अठहत्तर डिग्री देशांतर रेखा, अठारह डिग्री अक्षांश, त्रिकोणीय श्रंखला, त्रिकोण की आधार रेखा और समूचे भू-क्षेत्र को त्रिकोणों में बांटने की अवधारणा आदि चीजें अबूझ बनी रहेंगी हालांकि लेखक ने  दावा किया है कि 'तकनीकी पदों और क्रियाओं का सरलीकरण किया गया है जिससे साहित्य के पाठकों को यह कहानी सहज लगे'। 

पुस्तक में जहाँ-जहाँ तकनीकी या सैद्धांतिक विवरण आते हैं, वहां-वहां लगता है कि सरपट दौड़ती गाड़ी कहीं ऊबड़खाबड़ इलाके में घुस आई है। अन्यथा तो पुस्तक अक्सर रोचक उपन्यास जैसा आनंद देती है जिसमें हीरो हैं विश्व-प्रसिद्ध विलियम लैम्बटन और जॉर्ज एवरेस्ट जो अद्भुत जीवट, लगन, कभी हार न मानने वाली जिद के धनी हैं। उनका किरदार बहुत अच्छे ढंग से पेश किया गया है। उन दिनों चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में बीमारियों, महामारियों से लड़ते हुए, बाघ, शेर, चीते आदि वन्य पशुओं के खतरों के बीच असह्य मौसम में जंगल, दलदल, रेगिस्तान,पहाड़, वेगवती नदी व अनेक तरह के दुर्गम इलाकों के बीच से गुजर उचित स्थल तक तक पहुंच और वहां भू-सर्वेक्षण के लिए शिविर की स्थापना कर महीनों डटे रहने के वृतांत आज के आरामतलब जीवन जीने वालों के तो रोंगटे खड़े कर देगा। 

पुस्तक में भू-सर्वेक्षण की जरूरत, लम्बे समय तक चलने वाले इस अभियान की जटिलताओं, इससे जुड़ी जिज्ञासाओं के वर्णन के जरिए उन बुनियादी सवालों की भी जानकारी दी गई है जो उन दिनों वैज्ञानिकों को विस्मित करते थे और अपने आसपास की प्राकृतिक भौगोलिक स्थितियों और ब्रह्मांडीय पिंडों की असलियत को समझना चाहते थे। उनमें एक बड़ा सवाल यह था कि पृथ्वी का आकार कैसा है--चपटा, गोल, दीर्घवृत्तीय, चतुर्भुजीय या अर्धगोलाकार। यह जानने के लिए नई-नई युक्तियाँ और उपकरण सोचे जा रहे थे, बनाए जा रहे थे। भौगोलिक दूरियां मापी जा रहीं थीं, उन्हें ज्यामितीय कोण (डिग्री) की समझ से जोड़ा जा रहा था। पुस्तक उस समय के अंकगणित, ज्यामिति, दर्शन और खगोल सम्बन्धी परिकल्पनाओं का ख़ासा ऐतिहासिक बोध करा देती है।     

इसमें ऐसे विवरण भी बहुत हैं जो उस समय के भारतीय समाज और ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासनिक तरीकों को समझने में मदद करते हैं। प्रस्तुत भू-वैज्ञानिक अभियान उस समय का है, जब ईस्ट इंडिया कंपनी कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान मात्र नहीं रह गई थी। अँगरेज़ भारत की आंतरिक कूटनीति में दखल देने लगे थे और पूरे भारत में अपना साम्राज्य फ़ैलाने के लिए सैनिक व्यूहरचना और अपेक्षाकृत सुगम मार्गों के लिए भू-सर्वेक्षण को बहुत ही उपयोगी चीज मानते थे। लेखक ने बताया है कि जो सैन्य कर्मचारी गणित और खगोलशास्त्र का थोड़ा बहुत भी ज्ञान रखते थे, वे रास्ते भर नाप-पैमाइश और खगोलीय प्रेक्षण की मदद से रास्ते का कच्चा खाका तैयार करते जाते थे। दिशा के सही ज्ञान के लिए खगोलीय प्रेक्षण जरूरी होता था और उसके लिए वेधशालाएं जरूरी थीं। पर उस समय सारी वेधशालाएं स्थानीय शासकों के कब्जे में थीं इसलिए अंग्रेज  जगह-जगह अपनी निजी वेधशालाएं बनवा रहे थे। हिन्दुओं को गणित और खगोलशास्त्र में महारत हासिल थी, इसलिए उनकी पांडुलिपियां भी खोजी जा रही थीं। 

पुस्तक का पहला हीरो विलियम लैम्बटन ब्रिटिश सेना में था और भारत आने से पहले अमेरिका में युद्ध में भाग ले चुका था। 1796 में वह आर्थर वेलेजली की 33वीं बटालियन में  लेफ्टिनेंट बनकर भारत आया। पर उसकी मूल दिलचस्पी भू-विज्ञान में थी। उसने प्रसिद्ध गणितज्ञ से गणित और खगोलशास्त्र की शिक्षा ली थी। भारत में उसने अपना वैज्ञानिक कार्य चलाया और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका 'एशियाटिक रिसर्च' में शोध लेख भी प्रकाशित करवाए। 

4 अप्रैल 1799 को जब टीपू सुल्तान की फ़ौज पर धावा बोलने के लिए ब्रिटिश सेना भेजी गई तो वह असैनिक अधिकारी के रूप में साथ गया। उस दौरान उसने कमांडर की भयंकर गलती पकड़ी। उसने आकाश में सप्तर्षि मंडल की स्थिति देखकर पता लगाया था कि कमांडर सैनिक टुकड़ी को गलत दिशा में भेज रहा है। पहले उसकी सलाह की अवहेलना की गई पर कुछ ही दिनों में सबको गलती साफ़ नज़र आने लगी तो फिर टुकड़ी को उसके बताए मार्ग पर भेजा गया। इससे उसके खगोलीय ज्ञान का डंका बज गया और सेनापति आर्थर वेलेज़ली उसकी प्रतिभा और दक्षता का मुरीद हो गया। उसके समक्ष प्रस्ताव रखा गया कि वह समूचे मैसूर, हैदराबाद, मराठा सहित पूरे प्रायद्वीप का ऐसा मानचित्र बनाए जो सटीक हो, वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित हो। उन दिनों पृथ्वी के आकार जानने सम्बन्धी जो कार्य यूरोप में चल रहे थे, उनसे वह पूरी तरह अवगत था। उक्त ब्रिटिश प्रस्ताव में उसे अपने लिए अवसर नज़र आया कि वह इसके जरिए भूविज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया कर पाएगा। उन दिनों वैज्ञानिक इस रहस्यपूर्ण उलझन से जूझ रहे थे कि कुछ जगहों पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण मान असामान्य रूप से अलग क्यों निकल कर आ रहे हैं। लैम्बटन को लगा कि इस बात की पुष्टि के लिए वह बिलकुल सही जगह पर है और अगर उस क्षेत्र की सही-सही माप की जाए तो गुरुत्वाकर्षण के विविध प्रयोगों से जो निष्कर्ष सामने आ रहे थे, वह उनकी पुष्टि कर पाएगा। तो, उसने प्रस्ताव तैयार किया कि कन्याकुमारी और हिमालय की गोद में बसे मसूरी से गुजरने वाली 1,600 मील (2,500 किलोमीटर) लम्बी 78 डिग्री देशांतर रेखा को नापा जाए। 

सरकार का सोचना था कि इसकी मदद से जो मानचित्र बनेंगे, वे अंग्रेजों को भारत पर राजनैतिक प्रभुत्व जमाने के साथ-साथ यहां की प्रचुर भौतिक सम्पदा के दोहन का काम आसान करेंगे। उसकी प्रोजेक्ट फटाफट मंजूर हो गई। उसके बाद पुस्तक में इंग्लैंड से मापनयंत्रों को हासिल करने के प्रयासों की कहानी चलती है जिसमें बताया जाता है कि उसका प्रिय आधा टन भारी और आदमकद से भी बड़ा यंत्र 'थियोडोलाइट' अंततः सितम्बर 1802 में कैसे जैसे-तैसे मद्रास पहुँचा।     

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के लिए भू-सर्वेक्षण की उपयोगिता प्रमुखतः भूमि पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तथा परिवहन के लिए आधार संरचना बिछाने की जरूरत से जुड़ी थी। इसके लिए दूरियों, दिशाओं, सीमाओं, क्षेत्रफलों का जानना आवश्यक था। पहले यह सब जानकारियां स्थानीय लोगों के स्मृति पटल पर अंकित रहती थीं पर जब यह सब मानचित्र के रूप में कागज़ पर अंकित होने लगी तो जानकारियां समेटने और उसके विश्लेषण की क्षमता और विश्वसनीयता बहुत बढ़ गई। 

इतिहास है कि पृथ्वी पर विभिन्न भू-भागों के आकार यानी लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई-वक्रता आदि सम्बन्धी गणित की शाखा 'भू-गणित' का आधुनिक युग 1700 में शुरू हुआ। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नए नए किस्म के यन्त्र भी बनने लगे। सर्वेक्षण की त्रिकोणीय विधि विशेष रूप से प्रचलन में आई। पूरे भारत को वैज्ञानिक परिशुद्धता के साथ मापने के लिए लैम्बटन ने इसी विधि के आधार पर 'ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे' की योजना बनाई जिसके तहत पूरे भारत को त्रिकोणों में बाँटना और उनका मापन किया जाना था।  इसके लिए त्रिभुज की आधार रेखा को बहुत सावधानी से नापना होता, बाकी दो भुजाओं की माप तो कोणीय माप से भी निकाली जा सकती थी। इसके अलावा रैखिक दूरी और कोणीय दूरी, दोनों तरह के माप लेने होते थे। कई बार सही जगह की पहचान करना बहुत मुसीबतज़दा होता। और सबसे बड़ी बात, लैम्बटन का जोर मापन की शुद्धता पर बहुत होता जिसके लिए उसने अनेक विधियां ईजाद कीं। फिर भी कई बार तो वह महीनों से चली आ रही पूरी-की-पूरी कष्टकारी माप-श्रृंखला फिर से दोहराता।     

लैम्बटन के सर्वेक्षण की उत्कृष्टता की वैज्ञानिक समुदाय में प्रशंसा हो रही थी। 1817 में उसे रॉयल सोसाइटी का सदस्य बन गया। उधर, ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ अधिकारी गवर्नर जनरल के कान भरा करते कि '78 डिग्री देशांतर' के चक्कर में निज़ाम के क्षेत्र का नक्शा तैयार करने में बहुत विलम्ब हो रहा है। टीपू सुल्तान के मारे जाने के बाद सम्पूर्ण निज़ाम और मैसूर क्षेत्र जिस तरह अंग्रेजों को मिल गया, उसी तरह 6 अप्रैल 1819 को सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र पर भी अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया और लंदन सरकार के लिए सभी जगह के सटीक मानचित्रों की जरूरत और बढ़ गई ताकि हुक्मरानों को यहाँ के चप्पे-चप्पे की जानकारी हो सके।    

पर यह काम चटपट कैसे हो सकता था? किसी तय किए गए क्षेत्र में त्रिकोण की  एक भुजा, आधार-रेखा को मापना ही बहुत लम्बा कार्य होता था। अकेले इसमें ही डेढ़ दो माह का समय लग जाता। इसके बाद रेखा के दोनों सिरों पर खगोलीय प्रेक्षण करना होता जिससे रेखा की सही-सही दिशा निर्धारित की जा सके।  यह काम कई रातों में संपन्न हो पाता। खगोलीय प्रेक्षण जटिल कार्य होता था जिसे गणित और खगोलशास्त्र जानने वाला व्यक्ति ही सही-सही कर सकता था। इसमें गलती का अर्थ होता दिशा में भटकाव। इसलिए यह काम लैम्बटन  खुद करता। इसके लिए उसे कई-कई रातें जागकर बितानी पड़तीं। भारत के कठोर मौसम में निरंतर बिना उचित विश्राम लिए मेहनत का नतीजा यह हुआ कि लैम्बटन को तपेदिक हो गई। पर काम का जुनून इतना कि वह फिर भी अनवरत काम करता रहा। सरकार की इतनी दयादृष्टि जरूर रही कि उसकी शोधपरक रुचि देखते हुए उसे कई अन्य चीजों से मुक्त कर केवल 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' का चीफ बना दिया गया था।

उसे इंग्लैंड जाकर चिकित्सा की सलाह दी गई। वह दो दशक से स्वदेश से बाहर रह चुका था। इंग्लैंड में वैज्ञानिकों से मिलना भी चाहता था। पर भारत का काम वह ऐसे ही छोड़कर नहीं जा सकता था। वह जाने से पहले एक ऐसा सुयोग्य सहायक चाहता था जो उसके पीछे उसके गुणवत्ता के मानदंडों के अनुरूप काम कर सके। 25 अक्टूबर, 1817 को जॉर्ज एवरेस्ट के रूप में उसे सत्रह वर्षीय गणित और खगोलशात्र समझने वाला सहायक मिला। 

एवरेस्ट गुणवत्ता के मामले में लैम्बटन की प्रतिलिपि निकला। यही वजह है कि वह '78 डिग्री की महागाथा' का दूसरा नायक है। उसका जन्म ग्रीनिच में हुआ था जहां पर विश्व की सबसे आधुनिक वेधशाला थी और जहां का बच्चा-बच्चा अक्षांश और देशांतर रेखा के मायने समझता था।   

लैम्बटन कुछ स्वस्थ होकर इंग्लैंड से लौटा। पर उन दिनों तपेदिक का कोई पक्का इलाज न था। तपेदिक होते हुए भी वह काम के सिलसिले में लम्बी-लम्बी यात्राएं करता रहा। अंततः 20 जनवरी, 1823 की रात वर्धा और नागपुर के बीच हिंगनघाट गांव में लगे शिविर के अपने तम्बू में उसने प्राण त्याग दिए। सबने माना कि वह भारत के इस भू-भाग में पृथ्वी का आकार नापने के काम में जी-जान से लगा रहा। उसने कभी नगरीय सुख सुविधाएं नहीं भोगीं, जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत घूमना ही जैसे उसकी मनमांगी किस्मत थी। खास बात यह कि इस काम के लिए उसे न तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने आदेश दिया था और न ही इंग्लैंड सरकार ने। इसकी योजना उसने खुद बनाई थी और सरकार से मंजूर कराई थी। 

लैम्बटन की मृत्यु के बाद 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' विभाग का योग्यता की दृष्टि से असली उत्तराधिकारी जॉर्ज एवरेस्ट ही हो सकता था और वही उसका मुखिया बनाया गया। उसके काम का लेखक ने विवरण इस तरह दिया है: एवरेस्ट के साथ स्थानीय ग्रामीण लोग भी होते थे। वे इस बात से चकित थे कि आसपास के शेर-भालू-चीते कभी उसके शिविर के पास नहीं फटकते। अन्धविश्वास का आलम यह कि वे मानने लगे कि एवरेस्ट के पास जरूर कोई दैवी शक्ति है। ये लोग अनपढ़ थे, उनमें किसी वैज्ञानिक सोच का होना तो बहुत दूर की बात थी। एवरेस्ट जब दूरबीन लगाकर दूर पहाड़ पर मशाल को ढूंढ़ता या खगोलीय प्रेक्षण के दौरान आकाश में तारों को ढूंढ़ता तो आसपास के मजदूर सोचते कि वह स्वर्ग में बैठे देवी-देवताओं से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा है। घनी दाढ़ी-मूंछों की वजह से वह वैसे ही संन्यासी जैसा लगता था। खबर आसपास के गावों तक में फ़ैल जाती कि कोई साधू जंगल में साधना के लिए आया हुआ है और आसपास के दीन-दुखियारी और बीमार वहां आकर भीड़ लगा लेते और उसकी थिओडोलाइट मशीन के आगे नतमस्तक हो जाते और एवरेस्ट से कृपा की आशा में उसके समक्ष लंबलोट हो जाते।   

जॉर्ज एवरेस्ट ने कई नव प्रवर्तन किए। उनमें एक था दिन में रंगीन झंडों की जगह रात में मशाल आदि से प्रेक्षण करना  जिससे काम की गति बढ़ गई। रात में वह प्रकाश अपवर्तन का भी लाभ लेता जिससे यदि दिन में किसी पहाड़ पर लगा झंडा या संकेत किसी बाधा की वजह से दिखाई न देता, तो प्रकाश अपवर्तन की वजह से बाधा के बावजूद वह नीली रोशनी दिखाई पड़ जाती थी। प्रशिक्षित सिग्नलमैन नीली बत्ती लिए पहाड़ पर बैठे रहते और एवरेस्ट थिओडोलाइट की दूरबीन से पाठ्यांक लेता। नीली बत्तियों का इस्तेमाल उसके दिमाग की उपज थी।  

एवरेस्ट के समय में शिविर में 400-500 लोग होते और हैजा मलेरिया जैसी बीमारी भी फैलती रहतीं। यह 
काम ऐसा था कि स्वास्थ्य पर ध्यान देना संभव नहीं था। बुखार के दौर आते रहते और तब उसे लगता 
कि चिकित्सकों की राय मान कर उसे कुछ समय के लिए काम से हट जाना चाहिए। पर उसने ऐसा नहीं किया। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। अंततः चिकित्सा के लिए उसे भी वापस लन्दन जाना पड़ा। 


इंग्लैंड में उस समय औद्योगिक विकास का उत्कर्ष काल चल रहा था। खगोलीय प्रेक्षण और सर्वेक्षण के लिए नए-नए यंत्र बन रहे थे और पूरे यूरोप में इस्तेमाल हो रहे थे। नए सिद्धांत भी आ रहे थे। मसलन पृथ्वी पर पहाड़ जैसी सघन द्रव्यमान वाली भौगोलिक संरचनाएं तो दिखाई देती हैं लेकिन पृथ्वी के नीचे भी इस किस्म की सघन द्रव्यमान वाली सरंचनाएं हो सकती हैं, जो दिखाई नहीं देतीं। इससे भी गुरुत्वीय बल कहीं अधिक, कहीं कम होने की सम्भावना रहती है। भारत में इस बल को मापने का उस समय न कोई यन्त्र था और न  सर्वेक्षण में इस बल के इस्तेमाल की कोई कोशिश हुई थी। लंदन जाकर जॉर्ज एवरेस्ट त्रिकोणीय प्रेक्षण के साथ-साथ गुरुत्वीय प्रेक्षण का हिमायती हो गया।  

एवरेस्ट लगभग पांच साल बाद 6 अक्टूबर, 1930 को भारत लौटा। अब वह न केवल
‘ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे’का मुखिया था बल्कि उसे ‘भारतीय सर्वेक्षण विभाग’का महासर्वेक्षक भी बना दिया गया था। लैम्बटन की तरह एवरेस्ट का जोर भी गुणवत्ता पर होता। 'एक बार किसी गणना में गलती पकड़ में आ जाती तो वह परेशान हो जाता।' उधर, सरकार का कहना था कि मानचित्र जल्दी बनाए जाएं बेशक उनकी गुणवत्ता कुछ कम हो। सरकार को पूरे अवध और बंगाल क्षेत्र के मानचित्र पाने की जल्दी 
थी। सरकार का यह रुख देख उसने वह काम अन्य के ऊपर छोड़ दिया और खुद पूरी तरह 78 डिग्री देशांतर रेखा (महत्तम चाप) पर लग गया। उसे काम में तेजी लाने के लिए अच्छे संगणक की जरूरत थी। 
इस जरूरत को एक भारतीय हीरो ने पूरा किया जिसका नाम था राधानाथ सिकदर। अठारह साल की 
उम्र में वह दिसंबर 1831 में 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' विभाग में संगणक पद पर नियुक्त हुआ। वेतन था 30 
रुपए मासिक। मेधावी और बहुत परिश्रमी होने के साथ-साथ उसमें गणितीय क्षमता अद्भुत थी, अंग्रेजी भी अच्छी थी। एवरेस्ट उससे बहुत प्रभावित था और जल्दी ही उसे उप-सहायक बना कर उसका वेतन 107 रुपए पर पहुंचा दिया। इस पद पर तब  तक यूरोपीय ही नियुक्त होते थे।    

पुस्तक उस समय की परिस्थितियों का जीवंत चित्र सामने रख देती है। उसका एक रोचक नमूना यह है: नवनियुक्त बंगाली युवक सीधे स्कूल से आते थे। उन्हें सरकारी कल्चर की कोई समझ न थी। एवरेस्ट उनकी वेशभूषा देखकर क्रोधित होता। काफी गुस्सैल होते हुए भी वह स्थानीय लोगों पर कभी गुस्सा नहीं उतारता था। यह उसकी नीति थी। यहाँ भी उसने युवकों के समक्ष कोई नाराजगी जाहिर नहीं की। 
बस यह निर्देश भिजवा दिया कि वे पेंट न पहन सकें तो धोती की जगह पजामा तो पहनें और बूट नहीं तो 
चप्पल की जगह साधारण काले जूते ही पहनकर ऑफिस आया करें।  

त्रिकोणात्मक सर्वेक्षण में त्रिकोण के लिए उपयुक्त स्थल तलाशने के लिए बहुत मेहनत की जाती और उतनी ही मेहनत आधार रेखा तलाशने के लिए की जाती। पहले कच्चा प्रेक्षण किया जाता फिर बड़ी दूरबीन वाली थियोडोलाइट से वास्तविक प्रेक्षण किया जाता। त्रिकोण के लिए पहाड़ी आदि ऊंचे स्थल आदर्श होते हैं  क्योंकि वहां झंडा या रोशनी देखने में मार्ग में कोई अवरोध नहीं होता था। जहाँ पहाड़ नहीं होते, वहां ऊंचे भवन, मंदिर या मस्जिद तलाशी जातीं। जहां ये सब न होते तो कहीं मचान बनानी पड़ती थीं तो कहीं मीनारें। वहां फिर भारी भरकम यंत्रों को पहुँचाना होता था जो आसान न होता।   

सही जगह तलाशने के लिए एवरेस्ट खुद भी प्रतिदिन 20 से 30 मील पैदल चलता, सूर्योदय से सूर्यास्त तक इलाकों की खाक छानता। काम जो जज्बा लैम्बटन में था, वही जज्बा एवरेस्ट में था। गुणवत्ता का स्तर ऐसा कि एक बार जब सात-आठ मील की आधार रेखा की दंड से नापी दूरी को जब 86 त्रिकोणों की माप के आधार पर की गई गणना से प्राप्त दूरी को मिलाया गया तो महज साढ़े छह इंच का अंतर निकला। यह इस्तेमाल की जा रही प्रणाली की विश्वसनीयता का सबूत था। 

78 डिग्री देशांतर को, जिसे महत्तम चाप भी कहा जाता है, मापने की शुरूआत लैम्बटन ने कन्याकुमारी से की थी और यह काम मैदान, पठार, जंगलों, पर्वतों, जल प्लावित क्षेत्रों, दलदलों, घनी बस्तियों आदि तरह-तरह के क्षेत्रों से होकर गुजरते हुए 1834 तक काफी पूरा हो चुका था। अब उसकी समापन आधार रेखा तय करने की बारी थी जिसके लिए एवरेस्ट ने देहरादून को चुना और मसूरी में डेरा डाल दिया।

पर देहरादून में एवरेस्ट को गठिया का ऐसा दौरा पड़ा कि बाईं जांघ ने बिल्कुल काम करना बंद कर दिया और कूल्हें में असहनीय दर्द होने लगा। डाक्टर ने उसे त्रिकोणीय सर्वेक्षण कार्य से एकदम अलग हो जाने की सलाह दी, पर वह तो लैम्बटन जैसा ही हठी था। नतीजा यह कि तबियत इतनी ख़राब हो गई कि मई 1835 से अक्टूबर 1835 तक उसे बिस्तर पर ही पड़ा रहना पड़ा। उस समय गठिया के इलाज भी अजीब थे। एक हजार से ज्यादा बार जोंकों से खून चुसवा कर उसके रक्त की सफाई की गई। उसकी बीमारी की ख़बरों के बीच सरकार ने एक अन्य सर्वेक्षक, जरविस को कार्यकारी महासर्वेक्षक नियुक्त कर दिया था जिसे एवरेस्ट अधकचरे ज्ञान वाला मानता था। ऐसे व्यक्ति के लिए जो गुणवत्ता बनाए रखने के लिए दिनरात एक किए रखता था, यह स्थिति बहुत अपमानजनक थी। बहरहाल एवरेस्ट ने उसे डिग्री 78 देशांतर के काम से दूर रखा।  

महा-अभियान का समापन दो स्थानों पर एकसाथ खगोलीय प्रेक्षण के साथ ख़त्म करने की योजना 
बनी। इसके लिए मुज़फ्फरनगर के कचौली गांव स्थित कलियाना की अस्थायी खगोलीय वेधशाला में 
और साथ ही विदिशा जिले के कल्याणपुर में तारों को देखकर पाठ्यांक नोट करना तय हुआ। इसके लिए दो दल बनाए गए। इसके बाद यही काम फिर विदिशा से बीदर के बीच दोहराया गया। अंततः 11 जनवरी, 1841 को खगोलीय प्रेक्षण कार्य पूरा हुआ और सारी अस्थायी खगोलीय वेधशालाएं स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधियों के सुपुर्द कर दी गईं। लेकिन एवेरेस्ट का चार्ट बनाने, रिपोर्ट तैयार करने और गणना करने का कार्य चलता रहा। सर्वेक्षण का काम ख़त्म हो चुका था इसलिए उसने मसूरी स्थित घर छोड़ दिया और 1844 की शुरूआत में वह वापस इंग्लैंड पहुंच गया। पर गणना कार्य तो अभी बहुत लम्बा चलना था।  

काम का जूनून उस पर इस कदर सवार रहा था कि उसे शादी करने की भी फुर्सत नहीं मिली। 17 नवम्बर, 1846  को  आख़िरकार 56 वर्ष की उम्र में उसने एमा से विवाह किया। इसके कुछ ही महीने पश्चात महत्तम चाप से सम्बंधित उसके सम्पूर्ण गणना कार्य और परिणाम प्रकाशित हुए। उसने पृथ्वी के आकार सम्बन्धी स्थिरांक भी दिए जिन्हें एवरेस्ट स्थिरांक कहा  जाता है।  इन्हें भारतीय भूभाग में समस्त भौगोलिक कार्य जैसे मानचित्रण, समुद्र तल से ऊंचाई, दो स्थलों के बीच दूरी ज्ञात करने आदि में इस्तेमाल किया जाता है। उसने पृथ्वी के दो अर्द्ध मुख्य अक्ष की माप क्रमशः 6,477,301 और 6,356,100  मीटर बताई जो आज अंतरिक्ष प्रेक्षण में पाई गई माप से बहुत भिन्न नहीं है। इस तरह 1847 में जाकर यह काम समाप्त हुआ। 

इस पूरे अभियान में 45 साल लगे जिस दौरान 2,500 किलोमीटर लम्बे चाप (78 डिग्री देशांतर रेखा) को असाधारण परिशुद्धता के साथ नापा गया। एवरेस्ट स्थिरांक से विश्व के वैज्ञानिक समुदाय को काफी मदद मिली। इसी मान के आधार पर हिमालय की चोटियों की सही-सही ऊंचाई ज्ञात करना आसान हो गया। और तब 1850 में पता चला कि गणना-पुस्तिका में जिसे 'पीक-15' कहा गया है, वह सबसे ऊंची चोटी है। 1856 में इसका ही नाम माउंट एवरेस्ट रखा गया।  

पूरी पुस्तक दिलचस्प वाकयों से भरी है। इतिहास और रोमांचक किस्से-कहानियों के बीच विज्ञान की बातें पढ़ना मजेदार अनुभव है। ऐसी किताबें निरंतर लिखी जानी चाहिए और पढ़ी जानी चाहिए।   


महा-अभियान की महागाथा--78 डिग्री
लेखक: अरुण कुमार असफल
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए 

(इस पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त रूप मशहूर साहित्य पत्रिका 'हंस' के अप्रैल, 2020 अंक में प्रकाशित हो चुका है)